ऐसे होते हैं मुरीद
हज़रते सैय्यिदुना मीर अब्दुल वाहिद बिलग्रामी रहीमहुल्लाल त'आला लिखते हैं कि मै सिकन्दराबाद की मस्जिद में था।
एक क़लन्दर वहाँ नमाज़ पढ़ रहा था।
उस के पास दो बगैर सिले हुये तहबंद थे जिन में से एक को नीचे बांध कर सित्र पोशी कर रखी थी और एक को चार तहबंद मोड़ कर ज़मीन पर बिछा कर उस पर नमाज़ पढ़ रहा था।
सर पर टोपी और दस्तार थी मगर बाक़ी बदन बरहना (खुला हुआ) था।
एक तालिबे इल्म उस से सख्ती से उलझ पड़ा और कहने लगा कि ये गुमराह, सख्त दिल और जाहिल अपने जिस्म को खुला छोड़ कर अपने पैरों के नीचे कपड़े को बिछाये नमाज़ पढ़ रहा है, ये कितनी बे-अदबी की बात है।
ये सुन कर क़लन्दर ने वो तहबंद उठायी और अपने गले में डाल कर जिस्म को छुपाया और फिर नमाज़ में मशरूफ़ हो गया और उस पर कोई तब्दीली ज़ाहिर नहीं हुई।
उस तालिबे इल्म को महसूस हुआ कि मैने गलती की और सख्त अल्फाज़ इस्तिमाल किये हैं वो नमाज़ के बाद क़लन्दर से मुआफ़ी माँगने आया और कहने लगा कि मैने आपसे गैर मुनासिब बातें की है, मुझे माफ़ फ़रमा दीजिये।
उस क़लन्दर ने जवाब दिया कि ए गरीब नौजवान! बातों से वो दिल बिगाड़े जो किसी पीर का परवरिश किया हुआ ना हो, तुमने मुझे नसीहत की और शरई मस'अला बताया, अल्लाह त'आला तुम्हें बहुत जज़ा दे।
(سبع سنابل، ص68)
आज हमे सख्ती के साथ तो दूर, कोई हज़रत हज़रत कह कर ताज़ीम के साथ भी मस'अला बता दे तो हमें ऐसा लगता है कि हमारी तौहीन कर दी गयी है और हम फौरन अकड़ में आ जाते हैं और सामने वाले को जाहिल साबित करने और खुद को अहले इल्म साबित करने की हर मुम्किन कोशिश में लग जाते हैं। अल्लाह त'आला हमें अपने ऐबों पर नज़र करने और हक़ को तस्लीम करने की तौफ़ीक़ अता फरमाये।
अ़ब्दे मुस्तफ़ा
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